Written By नेहा दुसेजा

विकास की दौड़ में खोता प्रकृति का खज़ाना
क्या हम अपने शहरों को सांस लेने लायक नहीं छोड़ना चाहते?
कहते हैं, प्रकृति जितना हमें देती है, हमें भी उतना ही उसे लौटाने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन बढ़ते समय के साथ दुनिया बदल रही है, और इस बदलाव की आंधी में विकास के नाम पर हम अपनी जड़ों को खोते जा रहे हैं। इंसान ने अपनी सहूलियतों के लिए नदियों का रुख मोड़ा, जंगलों को काटा और पहाड़ों को चीरकर ऊँची–ऊँची इमारतें खड़ी कर दीं। पर क्या यह असली विकास है? क्या हम सच में आगे बढ़ रहे हैं या अपनी ही ज़मीन को खोखला कर रहे हैं?
आज की सुबह मेरे लिए बेहद खास रही, क्योंकि मैंने करवां इंडिया के साथ एक हेरिटेज वॉक में भाग लिया। यह वॉक सिर्फ शहर के पुराने इमारतों को देखने का अवसर नहीं था, बल्कि अपने इतिहास और विरासत को गहराई से समझने का एक ज़रिया भी था। हमने रानी कमलापति महल, गौहर महल, मस्जिद माजी साहिबा और अन्य ऐतिहासिक स्थलों के बारे में जाना। इनकी कहानियाँ सुनकर एहसास हुआ कि इतिहास कितना समृद्ध और खूबसूरत है, बस ज़रूरत है इसे सहेजकर रखने की। जितना हम अपनी विरासत को बचाएंगे, उतना ही हमारा भारत और यह दुनिया खूबसूरत बन जाएगी।
विकास बना विनाश
बात सिर्फ इमारतों और स्मारकों तक सीमित नहीं है। जिस तरह से हम अपनी धरोहर को भूल रहे हैं, उसी तरह हम प्रकृति के महत्व को भी अनदेखा कर रहे हैं। आधुनिकरण के नाम पर हमने कितने ही पेड़ काट दिए, कितने ही जलस्रोत सुखा दिए, और न जाने कितने जीव–जंतु विलुप्त होने की कगार पर आ गए।
बात करें भोपाल की, तो यह शहर झीलों की नगरी के रूप में जाना जाता है। लेकिन धीरे–धीरे यहाँ की झीलें कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होती जा रही हैं। जहाँ कभी पेड़ हुआ करते थे, वहाँ अब ऊँची–ऊँची इमारतें खड़ी हो रही हैं। जहाँ कभी चिड़ियों की चहचहाहट गूँजती थी, वहाँ अब सिर्फ गाड़ियों का शोर सुनाई देता है। सवाल यह है कि क्या हम इसी तरह विकास की ओर बढ़ना चाहते हैं?
प्रकृति हमारी रुकावट नहीं, हमारा सहारा है
कई लोग यह सोचते हैं कि पेड़–पौधे, जंगल, जीव–जंतु, पानी और हवा – ये सभी विकास में रुकावट हैं। लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। असली विकास वही है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर किया जाए। हमें यह समझने की जरूरत है कि यदि हमने प्रकृति को बचाया, तो प्रकृति हमें बचाएगी। यदि हमने इसे नष्ट किया, तो हम खुद भी नष्ट हो जाएंगे।
आज ज़रूरत है कि हम विरासत और प्रकृति दोनों को सहेजने की दिशा में कदम बढ़ाएँ। यह सिर्फ सरकार का काम नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है। हमें अपने शहरों को ऐसा बनाना होगा, जहाँ विकास भी हो और प्रकृति भी बचे।
जहाँ बच्चे से लेकर बड़ों तक सभी को पेड़ का महत्व और उसके होने का एहसास हो। जहाँ जरूरत के लिए नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी समझकर अपनी प्रकृति को बचाने का प्रण लिया जाए … क्या हम अब भी नहीं समझेंगे?
अब समय आ गया है कि हम खुद से यह सवाल पूछें।
- क्या हम अपनी विरासत को सिर्फ किताबों और तस्वीरों तक सीमित रखना चाहते हैं?
- क्या हम अपने बच्चों को एक ऐसा भविष्य देना चाहते हैं जहाँ सिर्फ कंक्रीट का जंगल हो?
- क्या हम अपने शहरों को सांस लेने लायक नहीं छोड़ना चाहते?
यदि हम सच में बदलाव लाना चाहते हैं, तो हमें आज ही से शुरुआत करनी होगी। हमें अपनी प्रकृति और विरासत को बचाने के लिए छोटे–छोटे प्रयास करने होंगे – जैसे पेड़ लगाना, पानी बचाना, प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल करना और ऐतिहासिक स्थलों की सुरक्षा करना।
विकास जरूरी है, लेकिन अपनी जड़ों को खोकर नहीं!
हमें एक संतुलित समाज की ओर बढ़ना होगा, जहाँ इतिहास, संस्कृति और पर्यावरण तीनों को समान रूप से महत्व दिया जाए।
हमारी धरोहर सिर्फ इमारतों में नहीं, हमारी ज़मीन, हमारा पानी, हमारी हवा – इन सबमें छिपी है। इन्हें बचाना सिर्फ हमारी ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की ज़रूरत भी है।
अब फैसला हमारे हाथ में है – हम आगे बढ़ना चाहते हैं या विनाश की ओर जाना चाहते हैं?