यात्रा का असली मतलब सिर्फ़ घूमना नहीं, बल्कि महसूस करना भी होता है
Written By नेहा दुसेजा

मैंने हमेशा ये माना कि सफ़र हमें सिर्फ़ बाहर की दुनिया नहीं दिखाते, बल्कि अंदर की दुनिया से भी मिलवाते हैं। ऐसे ही एक छोटे से पारिवारिक वेकेशन पर हम निकल पड़े – मढ़ई, मध्य प्रदेश की ओर। ज़्यादा कुछ नहीं सोचा था, बस ये सोचा था कि थोड़ा सुकून मिलेगा, परिवार के साथ कुछ वक़्त बिता लेंगे। शहर की भागती ज़िंदगी से कुछ दिन की राहत।
हम दो दिन वहाँ रहे। पहले दिन की सुबह ही कुछ अलग थी। पक्षियों की आवाज़ें, हवा में घुली हुई मिट्टी की खुशबू, और सामने बहती नदी का धीमा–सा संगीत … जैसे कुदरत खुद हमें बुला रही हो, “आओ, बैठो, थोड़ा सुनो हमें भी।”
हम जंगल सफारी पर गए। वहाँ के गाइड – नाम था रामकुमार – उन्होंने एक वाक्य कहा, जो मेरे भीतर कहीं बहुत गहरे उतर गया।
“यहाँ कोई जानवर भूखा नहीं सोता, और कोई पेड़ अकेला नहीं मरता। भगवान ने हर जीव के लिए कुछ तय किया है।”
पहले तो ये बात बस एक सुंदर–सी पंक्ति लगी, लेकिन जैसे–जैसे दिन गुज़रा, उसकी गहराई समझ आने लगी।
रामकुमार हमें एक झील के किनारे ले गए, जहाँ हिरणों का झुंड पानी पीरहा था। पास ही कुछ ग्रामीण महिलाएँ अपने मटके भर रही थीं। कोई डर नहीं, कोई भागदौड़ नहीं। जानवर और इंसान, दोनों एक–दूसरे की जगह समझते हुए, सम्मान करते हुए।
बच्चों के साथ खेलते–खेलते मैंने देखा कि वहाँ के लोग कितनी सहजता से जीते हैं। उनके पास ज़्यादा कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी वो संतुष्ट हैं। वो हर चीज़ को, हर जीव को, भगवान का हिस्सा मानते हैं। कोई गाय भूखी हो, तो पहले उसे खाना मिलेगा, फिर खुद खाना खाएंगे।
एक छोटी–सी बच्ची मिली वहाँ – नाम था गु़ड़िया। वो एक घायल कुत्ते को रोज़ दूध पिलाने जाती थी। मैंने उससे पूछा, “डर नहीं लगता?”
वो हँस कर बोली, “डर तो तब लगता है दीदी, जब हम किसी को दुखी देखकर कुछ कर नहीं पाते।“
उसकी बात सुनकर मुझे लगा, कितना बड़ा सबक सिखा गई वो मासूम–सी बच्ची। हम बड़े हो जाते हैं, लेकिन इंसानियत का गणित कभी समझ नहीं पाते।
मढ़ई के लोग सिर्फ़ पेड़–पौधों और जानवरों से प्यार नहीं करते, वो उनके साथ जीते हैं, जैसे परिवार का हिस्सा हों।
एक रात मढ़ई में, हम सब खाने के बाद बाहर खुले आंगन में बैठे थे। बिजली की रोशनी कम थी, लेकिन आसमान सितारों से भरा हुआ था – जैसे किसी ने काली चादर पर हीरे टांक दिए हों। वहाँ के बच्चे उन तारों की ओर इशारा करते हुए कह रहे थे, “वो देखो, वो वाला तारा हमारी दादी की पसंद का है। और वो वाला, जो सबसे चमकता है – वो हर साल किसी की एक इच्छा ज़रूर पूरी करता है।”
मैं कुछ पल चुपचाप उन्हें निहारती रही। वो सिर्फ़ तारे नहीं देख रहे थे, उनसे बातें कर रहे थे। उनके लिए वो आसमान कोई दूर–दराज़ का विज्ञान नहीं, एक अपना–सा रिश्ता था।
तभी मुझे ख्याल आया – कब से मैंने आसमान में तारे देखे नहीं? शहर की भागदौड़, चकाचौंध, और रौशनी के शोर में, जैसे रातें ही फीकी हो गई हों। वहाँ मढ़ई में, लोग अब भी तारे गिनते हैं, उन्हें अपना दुःख–सुख सुनाते हैं, और मानते हैं कि हर चमकता तारा कोई अधूरी दुआ पूरी करने आया है।
उन तारों को देखकर, जैसे कुछ अंदर फिर से जागा – एक मासूम–सी उम्मीद, और ये एहसास कि दुनिया में अब भी ऐसे कोने हैं जहाँ लोग आकाश से बातें करते हैं … और जवाब भी पाते हैं।
हम वापस लौटे तो लगा जैसे कुछ वहीं छूट गया हो – या शायद कुछ अंदर मेरे बदल गया था। अब जब घर के पास कोई आवारा जानवर दिखता है, तो मैं बस मुड़कर नहीं देखती – कुछ खाने को देती हूँ। अब पेड़ सिर्फ़ हरियाली नहीं, एक जीवित दोस्त जैसे लगते हैं।
मढ़ई की दो दिन की वो यात्रा कोई बड़ा टूरिस्ट डेस्टिनेशन नहीं थी, कोई लक्ज़री होटल नहीं, लेकिन वहाँ की हवा में कुछ ऐसा था जिसने मेरी सोच को छू लिया।
अब समझ आया कि यात्रा का असली मतलब क्या होता है – सिर्फ़ घूमना नहीं, बल्कि महसूस करना।
कभी–कभी ज़िंदगी हमें ऐसे मोड़ पर ले जाती है जहाँ हम दूसरों को देखकर खुद को फिर से पहचानते हैं। मढ़ई मेरे लिए वैसा ही मोड़ था।
अब जब कोई पूछता है, “कैसी रही ट्रिप?” तो मैं कहती हूँ, “मैं घूमने नहीं गई थी, मुझे वहाँ इंसानियत मिली थी – और शायद थोड़ा–सा खुद को भी।”